Saturday 12 January 2019

चिथड़ा-चिथड़ा आत्मविश्वाश

तुम क्या हो?
अपने मन में सबसे महान
यहाँ-वहाँ वक़्त काटते
सेल्फ़-हेल्प की किताबे ढूंढते
डिस्काउंट वाले सेक्शन में।

मुफ़्त दो जीबी रोज़ाना में
ढूँढते नुस्ख़े
कि प्रोटीन के लिये क्या ज़रूरी है डाइट में,
और शाम काटते वड़ापाव और कटिंग पर

जूतों से धूल हटाते चमकाते
देख ना पाए
की तला घिस गया है।

इस्तरी किया हुआ कपड़ा
पिस न जाए लोकल की भीड़ में
बचते-बचाते बाहर निकल के
छिड़कते डीओ
मिल गए थे जो 300 के तीन
उसमे खुशबू अपनी चॉइस की नही मिलती,
लेकिन मिल जाती है, ये क्या कम है।

इस्तरी वाले कपड़े और सस्ती खुशबुएँ,
क्या शामिल कर पाएगी हमें उस वर्ग में।
जो अपना बैडरूम 5 लोगो के साथ शेयर नही करते।
सबकी तरफ मुस्काते देखना, की कोई बात ही कर ले।
जैसे भेड़ की खाल पहन के घुसा हो भेड़िया
क्या मैंने भेड़-भेड़िये का रोल रिवर्सल किया?

बड़े से गेट से घुसती बड़ी कारे
और दरबान कर रहा कारों को सलाम,
वो गेट पार किया पैदल,
इतना मुश्किल तो ना था
फिर वो क्यूँ दिखता था गेट अंधेरे समुद्र की तरह
और दरबान राक्षष जैसा,
उसकी शक्ल वाला घीसू हमारे गाँव में सिंजारी* है।

खिसियाते से हाथ बढ़ाते ड्रिंक की तरफ
बैरे से नज़रे नही मिलाते
क्यों की उसे पता है
तुम्हे कितना क्या देना है
उसकी भेदी आँखे,
तुम्हारे अंदर बैठे
आठ लोगों के राशनकार्ड को पढ़ रही है
क्या बैरे की ट्रैन भी तुम्हारे गाँव जाती है?

बातें सब इतनी बड़ी
की तुम सिर्फ हामी भरो।
ज्यादा बोले तो तुम्हारा डायलेक्ट
तुम्हारे गाँव का नाम बता देगा

निकलना सबसे पहले
या सबसे आखिर में
ताकि कोई देख ना ले
पैदल स्टेशन की तरफ जाते हुए।

लौटते अपने दड़बे में मायूस,
की जी घबराया तो खोल लेंगे खिड़की
नोट करते डायरी में कितने बनाये कॉन्टेक्ट्स
पढ़ते सेल्फ हेल्प की किताबे
"हाऊ टू इन्फ्लुएंस एंड विन पीपल"