Saturday 2 June 2018

निःशब्द

पिता हमेशा मजबूर होते हैं,
स्कूल की फ़ीस का इंतज़ाम करते हुए,
काम में जुतते हुए,
आख़िरी तारीख़ तक तनख़्वाह संभालते हुए,
बूढ़ी आंखों से बच्चो को परदेस जाते देखतेे हुए।
फ़ोन पर झूठ बोलते हुए, कि मैं ठीक हूँ।

बच्चे मजबूर होते हैं,
करियर बनाते हुए,
घर से दूर रहते हुए,
सब बताना चाहते हैं,
लेकिन "खाना खा लिया क्या"
तक कि औपचारिकता में सीमित
त्यौहारो में घर लौटते हुए खाली हाथ,
कि शहर का किराया सब निगल गया।
त्यौहार दर त्यौहार,
पिता को जीर्ण-शीर्ण होते देखते।
की पिता एकदिन अस्पताल के बिस्तर पर लेटे है।
किसी सभ्यता के अवशेष से।
और सभ्यता बैठी है,
बिस्तर के बगल।
बचे हुए समय की बही देखते।


माँए पुल है,
दोनों छोरों को बेबसी से देखते हुए।