घर "घर" होता है । सभी को अपना घर प्यारा होता है, अब चाहे वो जुम्मन की झोंपड़ी हो या अम्बानी का एंटीलिया । सर पे छत दिल्ली की सर्द रातों में गर्म ख्वाबों के लिए ज़मीन तैयार करती है । ये छत सब अपनी - अपनी औकात के हिसाब से जुटाते है ।
फिलहाल सलीम का सबसे बड़ा ख़्वाब यही है ।
सलीम 19 साल की उम्र में घर से भाग कर दिल्ली आ गया था । सलीम के घर से भागने के पीछे कई मनोहर कहानियाँ प्रचलित है । पहली कहानी जिसे सिर्फ कहानी ही माना जाएगा क्योंकि ये सभी के मुँह से सुनी गयी है‚ सिवाय सलीम के और इसे सलीम की स्वीकृति प्राप्त नहीं ।
तो पहली कहानी का सार ये है की सलीम मियाँ फ़िल्मों के बड़े शौक़ीन थे ; और है ( बाल आज भी "राम जाने" के शाहरुख़ की तरह कटे हुए है ) । हीरो बनने के लिए सलीम मियाँ पहुँच गए बॉम्बे , अब वो बॉम्बे से दिल्ली कैसे पहुँचे इसके पीछे सस्पेंस है ।
दूसरी कहानी जिस पर सलीम ने अपनी स्वीकृति के साथ वैधानिकता का ठप्पा लगाया हुआ है । ये कहानी कुछ इस तरह है की सलीम का बाप बहुत बड़ा बेवड़ा था । जो हमेशा सलीम का 'गुड नाईट' मारपीट के साथ ही करता था, और सलीम की सौतेली माँ ( सलीम के शब्दों में ललिता पँवार ) उसे पेटभर खाना भी नहीं देती थी । इसलिए वो घर छोड़ कर भाग गया । ये वैधानिक कहानी बड़ी फ़िल्मी लगती है , जो इस बात को प्रमाणित करती है की सलीम मियाँ बड़े फ़िल्मी मिजाज के है ।
तीसरी और कम प्रचलित कहानी यह है की सलीम किसी लड़की को भगा कर दिल्ली ले आया था . . .जो दिल्ली आकर किसी और के साथ भाग गयी । तीसरी कहानी के बारे में कोई पुख्ता प्रमाण नही है । वैसे भी तन्हा सलीम मियाँ के पर्स में सिर्फ कटरीना की फ़ोटो है ( "घर कब आओगे " के टाईटल के साथ ) । ये "घर कब आओगे" सलीम को बड़ा पसंद है । सलीम के रिक्शा के हर तरफ "घर कब आओगे" के स्टीकर लगे है, जिन पर बॉलीवुड की हीरोईने अलग-अलग पॉज देके खड़ी है । ये स्टीकर सलीम को घर की याद दिलाते होंगे इसमें संदेह है ।
अब मुद्दे की बात :- दिन भर रिक्शा चलाकर सलीम कोई 150 रूपए तक कमा लेता है, और कभी कभार इससे भी कम । हर दिन उसे रिक्शा का किराया 80 रूपए मालिक लियाकत को देना ही पड़ता है । दिन भर में दो वक़्त के खाने के लिए 50 रूपए खर्च होते है । फ़िलहाल सलीम का एक ही आसरा है, जामा मस्ज़िद के पास बना हुआ "मुसाफिर खाना", जहाँ छत के नाम पर प्लास्टिक शीट लगी हुई है । जिसके नीचे एक खटिया, रजाई और बिस्तर सहित मिल जाती है, 20 रूपए के भाड़े पे । तो कुल मिलाकर दिन के अंत में सलीम के पास बचता है - खाली पर्स ( जिसमें कटरीना की फोटो है ) ।
"लेकिन ऐसे कब तक चलेगा, घर का इंतज़ाम तो करना ही पड़ेगा । "
दिल्ली में पक्के घर का ख़्वाब सलीम तो क्या उसकी आने वाली पुश्ते भी नही देख सकती ( गरीबों के ख़्वाब उनकी हैसियत की हद से बाहर नही निकलते ) । तो यहाँ सपना कच्चे घर का देखा जा रहा है, जिसे आम भाषा में झुग्गी कहा जाता है‚ और सरकारी भाषा में "परेशानी " । ये घर बनते है, मिट्टी की दीवारों और प्लास्टिक या टीन की छतो से ।
"इन घरो में नींद वैसी ही आती है जैसी नींद बड़े बंगलो में लाट साहबो को अपने मखमली बिस्तरों पर आती है " ( ये सलीम का विचार है अपना दिल बहलाने के लिए )
तो इस पूरी बात का लब्बो-लुआब यह है की सलीम को यह घर बनाने के लिए पैसे बचाने पड़ेंगे । लेकिन पैसे बचाए कैसे, ऐसी ठण्ड में खुले में सो नही सकता . . . . अगर सो गया तो सुबह लाश उठेगी . . . चार कंधो पे ।
काफी सोच-विचार के बाद जिस चीज का त्याग किया गया वह थी :- रोटी । अब सुबह और रात के खाने की जगह सिर्फ "शाम का खाना" खाया जाने लगा । बाकी वक़्त पेट पानी से भरा रहता था, कभी भूख ज्यादा तंग करती तो उस पर बीडी के धुएँ से हमला कर दिया जाता । तो इस तरह बचत होने लगी, बदन में कमजोरी आ रही थी और आँखों में उम्मीदें ।
"घर आखिर घर होता है"
आखिर ढाई महीने की तपस्या सफल हुई, पैसे सामान लाने के लिए काफ़ी थे । ईंटे, टीन की शीट खरीदी गयी‚ मिट्टी का जुगाड़ किया गया; और कच्ची बस्ती में खाली ज़मीन पर घर खड़ा कर दिया गया । मेहनत सफल हुई, अब सलीम के पास भी "घर" है । अब कही और सोने की ज़रुरत नहीं है‚ ठण्ड अब जाने को है, एक पतली चादर से काम चल जाएगा ।
रात अपने घर में गुज़री, नींद भी अच्छी आई । आज सलीम का मूड बहुत अच्छा है, गुनगुनाते हुए रिक्शा चला रहा है । आज शहर भी सलीम की आँखों की तरह चमक रहा है । पूरे शहर में रंग-रोगन हो रहा है, सफाई हो रही है । हर तरफ भड़कीले बैंगनी-नीले रंगों के पोस्टर लग रहे हैं । सारा शहर दुल्हन की तरह सज रहा है । आज खाने में भी गज़ब का स्वाद है, शायद मन की ख़ुशी हर आनंद को दुगुना कर रही है . . .और हाँ ; आज से खाना भी दो वक़्त खाया जाएगा ।
दिन बड़ा अच्छा गुज़रा आज का ( हालांकि आज भी कमाई रोज जितनी ही हुई ) । आज जल्दी घर जाने का मन कर रहा है, नए घर को निहारना भी तो है ।
लेकिन . . . ये क्या ? . . . दूर से दिखाई पड़ रहा है . . .बस्ती में भीड़ बहुत हैं । पास जाने पर देखा, माहौल बड़ा गरमाया हुआ है, हर आँख में आँसू और गुस्सा दिखाई दे रहा है । सरकारी लोग आए हुए है‚ बस्ती को हटाने के लिए । आधी बस्ती साफ़ हो चुकी है, और आधी अब हट जाएगी । सलीम का दिल धक्क सा रह गया, बुझती सी उम्मीद लिए अपने घर की तरफ दौड़ा . . .देखा . . . आँखों के सामने अँधेरा छा गया . . . दिल पर झटका लगा और दिमाग बेहोश हो गया ।
सुबह होश आया । आँख खुली तो देखा एक कुत्ता उसे सूँघ रहा है । कुत्ते को लात मार कर हटाया . . खड़ा हुआ . . .देखा . . .अब सारे घर साफ़ हो चुके है, मलबा हटाया जा रहा है । खाली जगहों पर वही भड़कीले बैंगनी-नीले रंगों वाले बैनर लग रहे है । बैनरों पर एक बाघ की तस्वीर है, और लिखा है - "देल्ही कोमनवेल्थ गेम्स" ।
सलीम की आँखों में आँसू . . हाथ में पत्थर . . वो लगातार बैनरों पर पत्थर फ़ेंक रहा है । कुत्ता कभी बैनरों को देख रहा है . . .कभी सलीम को ।